उठा जब नकाब उस काफिर के चहरे से तो च ह रा
मेरा भी शर्मसार होगया
कोई गैर नहीं था मेरी बरबादी का जीमेवार मेरे अपनो के ही हाथो मेरा जिस्म तार तार होगया
अब किसके लिए उठाऊ हथयार ए गालिब मेरा अपना खून ही मुझे मिटाने को तैयार होगया
मैं सोचता रहा और बहती रही नदिया अश्कों की जब देखा इंसान ही इंसान का सीकर होगया
अब क्या दिखाना जख्म जमाने को जब जमाना ही खून का नहीं पैसे का दीदार होगया
रामरतन सुड्डा मत बहा आंसू जमाना आंसुओ का नहीं मतलब का हकदार होगया
उठा जब नकाब उस काफिर के चहरे से तो च ह रा
मेरा भी शर्मसार होगया
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
Please do not enter any spm link in comment box